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अगर देश का एक बच्चा कहे कि,वो कलेक्टर या सेना का जवान नहीं बनना चाहता,सिक्किम के नाथुला में चीन की सीमा पर तैनात जवानों को अगर परिजनों से बात करने के लिए दुश्मन देश की सेना से मोबाइल मांगना पड़े,एक होनहार और ईमानदार ऑफिसर को भ्रष्टाचार से आजिज आकर नौकरी से इस्तीफा देना पड़ जाए,एक ईमानदार राज्यसभा सांसद चुनाव बस इसलिए हार जाए,क्योंकि वो खरीद फरोख्त में विश्वास नहीं करता,एक नहीं बल्कि अनेकों शहीदों के परिजनों को मुआवजे की राशि के लिए रिश्वत देना पड़े,एक गरीब को बिना मांगे उसका हक नहीं मिले,तो समझा जा सकता है कि,देश कहां जा रहा है,और भविष्य की नींव की असली हकीकत क्या है। जितने भी उदाहरण मैंने आपके सामने रखें हैं,उसमें मुझे सिर्फ और सिर्फ बेचारगी नजर आ रही है,और इस बेचारगी ने मुझे उस वक्त सबसे ज्यादा अंदर से हिला दिया,जब दफ्तर में काम के दौरान छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाके सुकमा के मासूमों की बाइट(बयान) मेरे कानों तक पहुंची। स्टोरी कवर करते वक्त हमारे सहयोगी ने बच्चों से पूछा कि,बड़े होकर क्या बनना चाहते हो,बच्चों ने तपाक से एक सुर में कहा,साहब मास्टर बनना मंजूर है,लेकिन कलेक्टर,पुलिस या सेना का जवान तो कतई नहीं बनूंगा। अगर कलेक्टर या जवान बन गया तो नक्सली उठा के ले जाएंगे। यकीन मानिए सुकमा के उन बच्चों की आंखों में मैंने वो दहशत महसूस किया,जो उम्र के इस दहलीज पर उन बच्चों के भविष्य के लिए कहीं से भी जायज नहीं है। आलम ये है कि,सुकमा के बच्चों की जिंदगी(सिर्फ सुकमा ही नहीं पूरे नक्सल इलाकों का यही हाल है)सूरज के उगने और ढलने पर निर्भर है। हैरानी होती है,कि सत्ता के शीर्ष पर बैठकर सुरक्षा और शिक्षा के अधिकार की बात करने वालों को सुकमा के बच्चों की बेचारगी नजर नहीं आती। पूरे छत्तीसगढ़ या यूं कहें कि,देश के कई हिस्सों में अभी भी सुकमा की तरह सूर्योदय और सूर्यास्त के साथ जिंदगी शुरू होती है,और थम जाती है। आजादी के 6 दशक बाद भी अगर देश में इस तरह की बेचारगी मुंह बाये खड़ी है,तो ऐसे में क्या मान लिया जाए कि,अब ये बेचारगी त्रासदी बन चुकी है।
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